पद्मश्री शरद जोशी व्यंग्यकार से पहले एक सहज-सरल, स्नेह-संवलित, आत्मीय व्यक्तित्व की पराकाष्ठा थे। अस्सी के दशक में उन्हे पहली बार मुंबई; तब के बम्बई के पेडर रोड स्थित सोफिया महाविद्यालय के सभागार के काव्य-मंच पर देखा और सुना। मंच कवियों का था- भवानीप्रसाद मिश्र, धर...
आप साहित्यकार बनना चाहते हैं मगर कोई सम्पादक या प्रकाशक आपको घास डालने को तैयार नहीं। आप एकदम मायूस न हों, मैं आपको कुछ ऐसे पेटेन्ट नुसखे बता रहा हूं जिन्हें आज़माने से आपकी साहित्यकार बनने की मनोकामना अवश्य पूरी होगी। अगर आप समझते हैं कि साहित्यकार बनने के लिये आप...
आखेट [व्यंग्य संग्रह] – सुशील सिद्धार्थ समाज की बिखरी पड़ी विसंगतियों का बखूबी ‘आखेट‘ ख्यात व्यंग्यकार, आलोचक,संपादक , चर्चित स्तम्भकार सुशील सिद्धार्थ का जन्म 2 जुलाई 1958 को हुआ और 17...
जो व्यक्ति विगत साठ सालों से लिख रहा हो, उसकी पहली कविता की किताब 83 वर्ष की उम्र में आए तो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह अविश्वसनीय ही लगता है। अभी हाल ही में फेसबुक पर एक व्यक्ति की पोस्ट देखी थी, जो अपने 60 वें जन्म दिवस के अवसर पर अपनी प्रकाशित 61 वीं किताब की बा...
एक दिन बुलडोजर ____________ये घास बार-बार उग आती है मुँडेरों पर ,बार-बार खुरपियों से छिलता हटाता हूँ छिलते-हटातेतंग हो जाता हूँ ख़ैर, एक दिन कोई बुलडोजर आयेगा न रहेगा बाँसन बाजेगी बाँसुरी किसान, जवान, मज़दूर___...
पिछले कई दिनों से अपने 'वामपंथी' या 'कम्युनिस्ट' होने की तोहमत झेल रहा हूं। जब भी मैं कोई ऐसी टिप्पणी करता हूं जिसमें भावुकता की जगह संवेदना की बात होती है, उन्माद की जगह विवेक का पक्ष होता है, अंधविश्वास की जगह तार्किकता की दलील होती है, मंदिर-मस्जिद झगड़ों को व्य...
हाल ही में प्रख्यात लेखक डॉ भगवतशरण उपाध्याय की चर्चित पुस्तक ‘पुरातत्व का रोमांस’ कई वर्षों बाद सामने आई है। इसका पुनर्प्रकाशन किया है भारतीय ज्ञानपीठ ने। इसका प्रथम संस्करण करीब चालीस साल पहले ज्ञानपीठ ने ही 1967में निकाला था। इसके आमुख में खुद डॉ उपाध्याय लिखते...
संवादों में व्यंग्य की संभावनाओं की तलाश राहुल देव द्वारा संपादित एवं संयोजित पुस्तक ‘आधुनिक व्यंग्य का यथार्थ’ कई मायनों में महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है। किसी भी विचार या सम्प्रत्यय पर विमर्शों के आयोजन उसके प्रचार-प्रसार को नवीन सम्भावनाएँ प्रदान करने में सहायक ह...
मनुष्यकाजन्मसामाजिकपरिवेशमेंहोताहै।इससामाजिकपरिवेशकेअपनेकुछविशिष्टनियमऔरसंस्कारहोतेहैंऔरमनुष्यइनमेंबंधाहोताहै।इससेबाहरजाकर, इससेविलगहोकरव्यक्तिकाअपनाकोईअस्तित्वनहींहोता।अपनेव्यक्तिगतजीवनकोमनुष्यसमष...
- अनूप कुमार पिछले छह-सात दशकों की हिन्दी कविता में डा. रणजीत अपने वैचारिक तेवर और प्रयोगधर्मिता के चलते एक अलग स्थान बनाये हुए हैं। मूलतः मार्क्सवादी होने के बावजूद वे अपने आप को कभी विचारधारा के बने बनाये खाचों में फिट नहीं कर पाये...