लिखना छोड़ा नहीं है। नया घर सजाया है। मन तो नहीं था पर क्या करूँ, यहाँ भी बता रहा हूँ। एकएक कर बताने से अच्छा तरीका यही लगा। आप सबको नया पता बताता चलूँ। जो लोग मेरे यहाँ से जाने के बाद से नाराज़ हैं, उनका हमारा साथ और आगे तक जाये, यही मन में दिल में दिमाग में है। करन...
पोस्ट लेवल : "अपनी ख़बर"

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तो साहिबान हम चलते हैं। फ़िर कब मिलेंगे, पता नहीं। मुसाफ़िर हैं हम भी, मुसाफ़िर हो तुम भी वाला निदा फ़ाजली का शेर याद आ रहा है। उसे लिख भी दूँ, तब भी नहीं मिलेंगे। क्या करूँ? मन भी तो खाली होना चाहता है। इस जगह ने सारी खाली जगहें अपने नाम से रख ली हैं। कोई और बात...

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कल पूरी रात करवट-करवट नींद में सवाल थे और नींद गायब थी। मन में दोहराता रहा, अब बस। अब और नहीं लिखा जाता। कोई कितना कह सकता है। सच, इन पाँच सालों में जितना भी कहा है, मेरी दुनिया को समझने की मुकम्मल नज़र दिख जाती है। मेरे पास बस इतना ही है, मुझे अब यह समझ लेना चाहिए।...

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दुनिया कितनी बड़ी है। इसके बीतते एक एक पल में इतनी सारी चीज़ें एक साथ घटित हो रही हैं, जिन्हें कह पाने की क्षमता मुझ अकेले में नहीं है। लिख तो तब पाऊँ जब उनतक मेरी पहुँच हो। दरअसल यह बात मुझे मेरी औकात बताने के वास्ते है। मैं कोई इतना दिलचस्प या गंभीर लेखक या अध्येता...

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अभी जब से सो कर उठा हूँ, तब से पता नहीं किन अजीब-अजीब से ख़यालों से भर गया हूँ। कैसे इन विकृत से बेढंगे सवालों ने मुझे घेर लिया। ऐसा क्यों होता है, हम न चाहते हुए भी लिखने को मज़बूर हो जाते हैं। कहाँ खाली बैठा रहता। कुछ सोचता। कुछ बैठा रहता। सोचता भी शायद यही सब। या...

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एक बात साफ़ तौर पर मुझे अपने अंदर दिखने लगी है। शायद कई बार उसे कह भी चुका हूँ। शब्द भले वही नहीं रहते हों पर हम अपनी ज़िंदगी के भीतर से ही कहने की शैली ईज़ाद करते हैं। वह जितना हमारे भीतर से आएगी, उनती सघनता से वह दूसरों को महसूस भी होगी। इसे हम एक तरह की कसौटी भी मा...

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मेरी बस थोड़ी-सी आँखें जल रही हैं और थोड़ी-सी नींद गायब है। बाकी सब ठीक है, जैसे देश में सब ठीक है। इस व्यंजना को समझने के लिए जादा दिमाग लगाने और घोड़े दौड़ाने की ज़रूरत नहीं है। यह कोई फ़िलर पोस्ट नहीं है जो इतने दिन के बाद आज रात उस खाली स्थान को भरने की गरज से लिखी ज...

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पता नहीं यह दिन कैसे हैं? कुछ भी समझ नहीं आता। मौसम की तरह यह भी अनिश्चित हो गये हैं जैसे। जैसे अभी किसी काम को करने बैठता हूँ के मन उचट जाता है। खिड़की पर पर्दे चढ़ाकर जो अंधेरा इन कम तपती दुपहरों में कमरे में भर जाता है, लगता है, वहीं किसी कोने से दाख़िल होकर मेरे म...

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पता नहीं वह उस पल के पहले किन ख़यालों से भर गया होगा। यादें कभी अंदर बाहर हुई भी होंगी? बात इतनी पुरानी भी नहीं है। कभी-कभी तो लगता अभी कल ही की तो है। दोनों एक वक़्त पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर खड़े, अपने आगे आने वाले दिनों के खवाबों ख़यालों में अनदेखे कल के सपने ब...

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कभी-कभी सोचता हूँ, जिस तरह ख़ुद को बेतरतीब लगने की कोशिश हम सब कभी-न-कभी अपने अंदर करते रहते हैं, उनका सीधा साधा कोई मतलब नहीं निकलता। यह बिलकुल वैसी ही बात है जैसे लिखने का ख़ूब मन हो और तभी प्यास लग जाये। पानी की बोतल कमरे में दूर रखी है। इसलिए उठना पड़ेगा। पर यकायक...