पता नहीं अंदर ख़ुद से कितने झूठे वादे कर रखे हैं।एक में हम शादी के बाद पहली बात अकेले घूमने निकलने वाले हैं। में सारी ज़रूरी चीजों में सबसे पहले कैमरे को संभालता हूँ। जिद करके उधार ही सही नौ हज़ार का डिजिटल कैमरा ले आता हूँ। कहीं पहाड़ पर जाएँगे, तब अपनी साथ वाली तसवी...
पोस्ट लेवल : "इंतज़ार पर कुछ"

0
पता नहीं यह कैसी अलसाई-सी सुबह होती? सब तुम्हारे आने की आहट में न जाने कब से टकटकी लगाए ऊँघते उनींदे करवट लिए वहीं बैठे रहते। तुम आते, तो पता नहीं आज कैसा होता। शायद इस अधूरी दुनिया का अधूरापन कुछ कम हो जाता। हम भी कुछ पूरे होकर थोड़े और भर जाते। तुम थोड़ी देर करते,...

0
कितनी शामों से यह शाम ऐसे ही ठहरी हुई है। एकदम बिलकुल शांत। रुकी हुई। खिड़की से फ़र्लांग भर की दूरी पर उस अमलतास के फूलों के झर जाने के बाद से सहमी हुई पत्तियों की तरह। हम भी कहीं मिट्टी में रोपे हुए पेड़ होते तो आज तीस साल बाद कितने बड़े होकर किसी आँधी पानी में टूटकर...

0
वह खाली कमरे का एहसास अपने अंदर भरकर पीछे कई मिनट से अपनी डायरी में छिपाये उस ख़त के बार में सोचता रहा। वह कुछ नहीं कर पाया। ऐसा सोच कर फ़िर कुर्सी में धँस गया। छतपंखे की फाँकें उसके अंदर निकाल आयीं। वह रोने को हुआ, पर रो न सका। इधर कुछ नींद में जाने से पहले के ख़यालो...

0
वह खाली कमरे का एहसास अपने अंदर भरकर पीछे कई मिनट से अपनी डायरी में छिपाये उस ख़त के बार में सोचता रहा। वह कुछ नहीं कर पाया। ऐसा सोच कर फ़िर कुर्सी में धँस गया। छतपंखे की फाँकें उसके अंदर निकाल आयीं। वह रोने को हुआ, पर रो न सका। इधर कुछ नींद में जाने से पहले के ख़यालो...

0
वह कभी अकेले निकल जाता और किसी पेड़ के नीचे बैठ दिमाग में घूमती हरबात को सुनने की कोशिश करता। आज शाम अँधेरे के साथ बरसात में सड़कें गीली थीं। उसके मन के भीतर वह किसी पल फिसल गया। इतने सालों में उसने कभी ध्यान से नहीं सोचा लगातार उस चारदीवारी में उसकी बातों की जगह सिम...

0
धूप-छाव सामने खिड़की से लगे शीशे के पार लगातार आँख-मिचौली खेलते दिखते रहे। उनका दिखना आँखों से नहीं रौशनी से है, जो बादलों को चीरकर अंदर तक दाखिल होती जाती। दुनिया उन लकड़ी के कब्जों से बहुत दूर भी रही होगी, जो इस वक़्त दीवार से कहीं भागे जाने को नहीं दिख रहे। व...

0
उधर कोने वाली बरसाती में वह अचानक आकर छिप जाता। वहाँ अँधेरा इस कदर काला रहता के उसमें सिवाए साँसों के किसी भी चीज़ का कोई एहसास नहीं रह जाता। रह जाना कुछ छूट जाना था, उसकी यादें छूट रही थीं। ख़ुद वह कहीं पीछे किसी लाल छतरी वाली सपनीली दोस्त की परछाईं में गुमसुम-सा रह...

0
सड़क किनारे कहीं दिवाल नहीं थी, इसलिए पेड़ ही दीवार है। बसों का घंटाघर। यह ढाबली, पैट्रोल पंप है। जब वह आ जाएगा, यह गुम हो जाएगी।

0
कितने दिन हो गए, इस घर नहीं आ पाया। अनकही बातों से ख़ुद को भरता रहा। सोचता रहा बस, मौका तो लगे, सब कह दूँगा। तुम्हारे कान के पास आकर। चुपके से लटों को हटाकर। उन होंठों को हल्के से छूकर। उँगलियों के खाली हिस्सों को भरते हुए। आहिस्ते से कुछ-कुछ न कहते हुए। आँखों में आ...