कल पूरी रात करवट-करवट नींद में सवाल थे और नींद गायब थी। मन में दोहराता रहा, अब बस। अब और नहीं लिखा जाता। कोई कितना कह सकता है। सच, इन पाँच सालों में जितना भी कहा है, मेरी दुनिया को समझने की मुकम्मल नज़र दिख जाती है। मेरे पास बस इतना ही है, मुझे अब यह समझ लेना चाहिए।...
पोस्ट लेवल : "इतिहास जो अतीत नही"

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आज कल यह तर्क बहुत चल रहा है कि जनता भी विरोध दर्ज़ करना चाहती है, पर उसके पास सुघड़ भाषा और उसकी पिच्चीकारी करती मुहावरेदार शैली नहीं है। वह सब, जो इसकी ओट में पीछे खड़े हैं, इस बहाने से आम जनता के प्रवक्ता बनकर उभरे हैं। वह ख़ुद इस पद पर नियुक्त कर लिए गए हैं। यह संग...

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डिजिटल इंडिया ऐसी तकनीक साबित होगी, जिससे अब अंतरजातीय विवाह सुगमता से होने लगेंगे, जातिवाद देश से उखड़ जाएगा। फ़ेसबुक मेट्रीमोनियल साइट में तब्दील होने जा रहा है। कोई मुजफ्फरनगर, बथानी टोला अब नहीं होगा। कोई किसी के लिए हिंसक शब्दावली का इस्तेमाल नहीं करेगा। अब यहाँ...

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'धर्मनिरपेक्षता' की एक व्याख्या:"नेहरू ने धर्मनिरपेक्षता को अन्य धर्मों का स्थान लेने वाले नागरिक धर्म की तरह कभी नहीं लिया। वे धर्म को मिला कर सभी भारतवासियों पर धर्मनिरपेक्ष पहचान का ठप्पा लगाने और इस तरह समाज पर एक नई नैतिकता थोपने के पक्ष में कतई नहीं थे। उन्हे...

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असहमतिअपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हमारे मास्टर रहे हैं। हम आज भी उनसे काफ़ी कुछ सीखते हैं। हमने उनसे बात को तार्किक आधार से कहने का सहूर सीखा और लिखकर उसे कहने का कौशल भी। लेकिन वह एनडीटीवी के 'मुक़ाबला' में कैसी बात कह रहे हैं। समझ नहीं आता। वह जब अल्पसंख्यक...

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यह बात मुझे बहुत साल बीत जाने के बाद समझ आई। या इसे ऐसे कहें के उन बातों को समझने लायक समझ उमर के साथ ही आती। उससे पहले समझकर कुछ होने वाला भी नहीं था। मौसी हमारी मम्मी से छोटी थीं या बड़ी कोई फरक नहीं पड़ता। मैं बहुत छोटा रहा होऊंगा, जब एकदिन वह मर गईं। मेरे हिस्से...

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बड़े दिनों से यह सारे सवाल अंदर-ही-अंदर उमड़ते रहे हैं। कहीं कोई जवाब दिखाई नहीं देता। उन सबका होना हमारे होने के लिए पता नहीं कितना ज़रूरी है? पर यह समझना मुश्किल है कि इधर नींद न आने का असली कारण क्या है? शायद हमें अपनी पहचान छिपाये रखनी है। कोई हमें देख न ले, हम कौ...

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गतांक से आगे.. बड़ी देर से स्क्रीन के सामने बैठे सोच रहा हूँ, कहाँ से शुरू करूँ? कितनी सारी बातें एकसाथ आ रही हैं। उन्हे किस क्रम से कह पाऊँगा? जबसे यह तय किया है के ब्लॉग के इन बीते दिनों पर कुछ लिखना है तब से ‘नोट्स’ बन रहे हैं। कितने तो ड्राफ़्ट लिखे और मिटा दिये।...

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अब जबकि दिल्ली को कुछ ही देर में ‘मुख्यमंत्री’ मिलने वाला है इन सब बातों का कोई अर्थ नहीं, ऐसा नहीं है। यहाँ नीचे जो कुछ भी आने वाला है, वह कम-से-कम एक ‘नरेटिव’ की तरह काम हो करेगा ही। एक उत्तर पाठ। बात हमारे एमए के दिनों की है। हमारी ‘फ़ैकल्टी’ हमारे ही डिपार्...

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उस दोपहर राजेश जोशी की एक कविता का नाम यादकर लौटा। घर पहुँच उसे खूब ढूँढा। नहीं मिली। कविता में एक ‘प्लेटफॉर्म’ की बात थी। बात क्या थी याद नहीं। पर उसे दोबारा पढ़ लेने का मन था। जहाँ-जहाँ मिल सकती थी, देखा। नहीं मिली। दिल थोड़ा बैठ गया। मन मान नहीं रहा था। बड़ी देर तक...