तो साहिबान हम चलते हैं। फ़िर कब मिलेंगे, पता नहीं। मुसाफ़िर हैं हम भी, मुसाफ़िर हो तुम भी वाला निदा फ़ाजली का शेर याद आ रहा है। उसे लिख भी दूँ, तब भी नहीं मिलेंगे। क्या करूँ? मन भी तो खाली होना चाहता है। इस जगह ने सारी खाली जगहें अपने नाम से रख ली हैं। कोई और बात...
पोस्ट लेवल : "करनी चापरकरन"

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कल पूरी रात करवट-करवट नींद में सवाल थे और नींद गायब थी। मन में दोहराता रहा, अब बस। अब और नहीं लिखा जाता। कोई कितना कह सकता है। सच, इन पाँच सालों में जितना भी कहा है, मेरी दुनिया को समझने की मुकम्मल नज़र दिख जाती है। मेरे पास बस इतना ही है, मुझे अब यह समझ लेना चाहिए।...

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देखते-देखते पाँच साल बीत गए। जैसे अभी कल ही की तो बात है। लेकिन जैसे अगले ही पल लगता है, यह पिछली पंक्ति और उससे पिछली पंक्ति कितनी झूठ है। सरासर झूठ। पाँच साल। कितना बड़ा वक़्त होता है। हमारी ज़िंदगी के वह साल, जब हम जोश से भरे हुए किसी भी सपने को देख लेने की ज़िद से...

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साल ख़त्म होते-होते फ़िर लगने लगा इस नाम के साथ बस यहीं तक। यह मेरे हारे हुए दिनों का नाम है। जैसे बिन बताए एक दिन अचानक इसे शुरू किया था, आज अचानक बंद कर रहा हूँ। इस भाववाचक संज्ञा से निकली ध्वनियाँ मेरे व्यक्तित्व पर इस कदर छा गयी हैं, जिनसे अब निकलना चाहता हूँ। कै...

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तारीख़ अट्ठारह सितंबर। साल दो हज़ार चौदह। एक साल और बीत गया। इसे ‘जुड़ गया’, कहने का मन था। फ़िर भी क्यों नहीं कह पाया, पता नहीं। इस दुनिया में हमारी भी गलियाँ, कई खिड़कियों से गुजरते दृश्यों को ‘स्थिर’ कर सामने रख देती होंगी। किसी विचार के भीतर घूमते, किसी याद को याद क...