हम ऐसे दौर में जी रहे हैं, जहाँ हम ख़ुद नहीं जानते कि यह दौर हमारे साथ क्या कर रहा है। यह पंक्ति, अपने पाठक से बहुत संवेदना और सहनशीलता की माँग करती है कि वह आगे आने वाली बातों को भी उतनी गंभीरता से अपने अंदर सहेजता जाये। जब हम, किसी दिन अपनी ज़िन्दगी, इसी शहर में बि...
पोस्ट लेवल : "थीसिस एंटी-थीसिस"

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वह लोग एक ऐसे समय में जी रहे थे, जहाँ इस शहर के अलावे कहीं किताब लिखने वाले नहीं बचे थे। जिसे आना था, जिसे छपना था, उसे इस राजधानी आना पड़ता। यह मजबूरी कम सुविधा अधिक थी। यह उन सबका संगठित प्रयास था, जो लेखकों को यहाँ अपने आप खींच लाता। कोई भी होता उसे पिताजी मार्ग...

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पता नहीं यह कैसा भाव है। पर यह ऐसा ही है। गाँधी होना कितना मुश्किल है। कितनी कठिन हैं वह परिस्थितियाँ जिनके बीच सौ साल पहले दक्षिण अफ्रीका से वह लौटे होंगे। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन अपने शासित उपनिवेशों की कीमत पर अभी प्रथम विश्व युद्ध लड़ रहा है। अगले तीन सालों में व...

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अब जबकि झाड़ू उठाए नेता, मंत्री, संतरी अख़बारों में छपने के लिए इतने लालायित नहीं दिख रहे, ख़ुद कूड़ा फैलाकर मजमा जुटाने की जद्दोजहद अब ठंडी पड़ गयी है, जनता यू-ट्यूब पर प्रधान सेवक के सफ़ाई वीडियो का इंतज़ार करते-करते थक चुकी है, मन की बात सुनने के लिए रेडियो खरीद...

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हमारे एक अध्यापक हुए। असल में इसे इस तरह कहा जाना चाहिए कि हम उनके विद्यार्थी हुए। वे कहा करते हैं, जिस चीज़ का आभाव रहता है, उसे ही बार-बार याद करने की ज़रूरत पड़ती है। सब कह रहे हैं आज ‘अंतरराष्ट्रीय शांति दिवस ’ है। इन अर्थों में इसका मतलब यह हुआ कि शांति अभी भी इच...

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पाँच सितंबर, हर साल, शासकीय परंपरा में इसे ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाने की कवायद राष्ट्रीय स्तर पर देखी जा सकती है। इस साल तो यह अति राष्ट्रव्यापी है। बहरहाल। यह दिन क्यों निश्चित किया गया, अपने आप में पूछे जाने लायक सवाल है। कई प्रबुद्धजन अपनी भूमिका...

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कई दिनों से फ़िल्मों पर लिखना टाल रहा था। बस करता क्या था? ‘टॉरेन्ट’ पर लगाकर भूल जाओ। देखता कौन है? किसके पास इतना वक़्त है? पर मन नहीं मानता। चुपके से किसी दोपहरी छत वाले इस कमरे में हैडफ़ोन लगाकर बैठ जाता। एक किश्त में एक। ‘क्वीन’ और ‘हाइवे’ आगे पीछे देखीं। दोनों क...

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पिछली पोस्ट पर श्वेता को ‘जेंडर डिस्कोर्स’ की संभावना दिख रही होंगी, लवकेश पीछे पन्नों पर उकड़ू बैठ उन्हे पढ़ रहा होगा। करिहाँव दर्द करने लगे होंगे। राकेश फ़ोन करने की सोच रहा होगा, पर सिर्फ़ सोचता रहेगा। कर नहीं पाएगा। वह भी कुछ सोच रही होगी। पर कुछ कह नहीं पाएगी। इन...

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रात के एक बज रहे हैं। यहाँ क्या कर रहा हूँ? पता नहीं। ऐसे ही बैठ गया। कई सारी बातें किसी उदास ख़याल की तरह दिमाग से दिल की तरफ़ उतरती, धड़कनों से ख़ून में घुलने से कुछ देर पहले वापस दिमाग की तरफ़ लौट गईं। कुछ वहीं रुकी रहीं। उनके होने-न-होने से कोई फ़रक नहीं पड़ने वाला। द...

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‘ये आँखें हैं तुम्हारीतकलीफ का उमड़ता हुआ समंदर,इस दुनिया को /जितनी जल्दी हो /बदल देना चाहिए ’राकेश न मालुम कितनी दफ़े इन पंक्तियों को दोहराता रहा है। उसके दिमाग में लगे संगमरमर के पत्थर पर खुदी हुई हो जैसे। एक वक्तव्य की तरह। पर कभी उनकी कविताएँ नहीं पढ़ीं। कभी मन न...