बात पता नहीं किस दिन की है। होगी किसी दिन की। हम लोग फरवरी की ठंड में सिकुड़ते हुए नेहरू प्लेस से शायद नजफ़गढ़ जाने वाली बस में बैठे थे। ग्रेजुएशन का आख़िरी साल था। हम जेएनयू फ़ॉर्म भरने जा रहे थे। वह हमारे नए सपने का नाम था। जिस बस में हम थे, उसकी पिछली सीटें भी बस की...
पोस्ट लेवल : "थोड़ी हकीकत थोडा फ़साना"

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थोड़ी देर झूठ बोलना चाहता हूँ। कहीं से भी कोई आवाज़ सुनाई न दे। सब चुपचाप सुनते रहें। कहीं से छिपकर मेरी आवाज़, उनके कान तक आती रहे। उन्हे दिखूँ नहीं। बस ऐसे ही छिपा रहूँ। पता नहीं यह कितनी रात पुरानी रुकी हुई पंक्ति है। इसे लिखना चाहता था, ‘रोक दी है’। जैसे, इतने दिन...

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जबसे वह चला है, तब से अब तक ट्रेन में सब सो चुके होंगे। वह भी गर्दन एक तरफ़ कर यहाँ के बारे में सोच-सोच उकता गया होगा। नींद अभी सिराहने से गुज़र वापस लौटने की तय्यारी में होगी। कि तभी एक हाथ उसके पास आकर, किनारे वाली बत्ती को जलाने वाला बटन ढूँढ रहा होगा। उन हाथों...