दिल्ली हमारे सपनों का शहर। हम कभी सपनों में भी दिल्ली नहीं आपाते। अगर हमारी दादी ने हमारे पापा को बाहर पढ़ने के लिए भेजा न होता। तब यहाँ रहना तो दूर, इसे कभी छू भी नहीं पाते। हम दिल्ली रोज़ सुनते, पर कभी इसे देख नहीं पाते। हम भी वहीं चार-पाँच साल पहले तुमसे शादी और द...
पोस्ट लेवल : "दीवार"

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घर नहीं होता बेज़ानदारछत से घिरी चार दीवारों का,घर के एक एक कोने में छुपा इतिहास जीवन का।खरोंचें संघर्ष कीजीवन के हर मोड़ की,सीलन दीवारों पर बहे हुए अश्क़ों की,यादें उन अपनों की जो रह गये बन केएक तस्वीर दीवार की,गूंजती खिलखिलाहट अब भी इस सूने घर मे...

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कल खरोंची उँगलियों सेदीवारों पर जमी यादों की परतें,हो गयीं घायल उंगलियाँरिसने लगा खूनडूब गयीं यादें कुछ पल कोउँगलियों के दर्द के अहसास में।कितनी गहरी हैं परतें यादों की,आज फ़िर उभर आया अक्स दीवारों पर यादों का,नहीं कोई कब्रगाहजहाँ दफ़्न कर सकें यादें,शायद चाहतीं साथ...

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वह अचानक एक पोस्ट में ख़ुद को पाकर हैरान रह गया। उसकी हैरानी को डर में बदलते देखने का एहसास किसी भी तरह से रोमांचित नहीं कर रहा था। वहाँ उसका नाम नहीं था, बस कुछ इशारे थे। बहुत बारीक-सी सीवन उधेड़ते सब उसे देख लेते। यह कैसा होता होगा, जब कोई हमारे बारे में लिखन...

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कर बंद पिटारा सपनों का,बहते अश्क़ों को रोक लिया.अंतस को जितने घाव मिले स्मित से उनको ढांक लिया.विस्मृत कर अब सब रिश्तों को,अब मैंने फ़िर जीना सीख लिया.करतल पर खिंची लकीरों कोहै ख़ुद मैंने आज खुरच डाला.अब किस्मत की चाबी मुट्ठी में, खोलूँगा सभी बेड़ियों का ताला.नहीं चाह...

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तारीख़ अट्ठारह सितंबर। साल दो हज़ार चौदह। एक साल और बीत गया। इसे ‘जुड़ गया’, कहने का मन था। फ़िर भी क्यों नहीं कह पाया, पता नहीं। इस दुनिया में हमारी भी गलियाँ, कई खिड़कियों से गुजरते दृश्यों को ‘स्थिर’ कर सामने रख देती होंगी। किसी विचार के भीतर घूमते, किसी याद को याद क...

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अगस्त बाईस तारीख। दिल्ली में बारिश, बारिश कहने लायक भी नहीं हुई है। उमस कम है पर आसमान से बूँदें भी नहीं गिर रहीं। सब इंतज़ार में हैं। पेड़, बिरवे, मोर, चिरिया, पंछी, मिट्टी, घास, भूत परेत सब। महिना ख़त्म होने को है और करने के लिए कुछ नहीं है। ऐसा मन सोचता है, पर कई स...

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हर शहर में कुछ-कुछ हम होते हैं। हमारी साँसें हमेशा बहाने बनाकर उधर ही खिंचती रहती हैं। हवाओं में उड़ती पतंगों की डोर की तरह, आसमान में अपनी मर्ज़ी से नाचती रहती हैं। ढील देते उँगलियों के बीच फँसे मँजे की तरह। धड़कनें हर धड़कन के साथ वहीं ले जाती हैं। हम कहीं खोई-खोई सी...

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मत खींचो लक़ीरें अपने चारों ओरनिकलो बाहर अपने बनाये घेरे से.खोल दो सभी खिड़कियाँ अपने अंतस की,आने दो ताज़ा हवा समग्र विचारों की,अन्यथा सीमित सोच सेरह जाओगे घुट कर अपने बनाये घेरे में ऊँची दीवारों के बीच....कैलाश शर्मा

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दिल्ली, मेरा शहर। बीते शनिवार से इस भाववाचक संज्ञा को कितनी ही बार अंदर-ही-अंदर दोहरा रहा हूँ, पता नहीं। कितनी ही यादें बेतरतीब हुई जा रही हैं। आगे पीछे। ऊपर नीचे। इसमें ऐसा कुछ है जो बैठने नहीं दे रहा। हर वक़्त लग रहा है कुछ छूट रहा है। कुछ पीछे रह गया है। शायद डीट...