घर से निकले तो हो सोचा भी किधर जाओगेहर तरफ़ तेज़ हवाएँ हैं बिखर जाओगे।इतना आसाँ नहीं लफ़्ज़ों पे भरोसा करनाघर की दहलीज़ पुकारेगी जिधर जाओगे।शाम होते ही सिमट जाएँगे सारे रस्तेबहते दरिया से जहाँ होगे ठहर जाओगे।हर नए शहर में कुछ रातें कड़ी होती हैंछत से दीवारें जुदा ह...
पोस्ट लेवल : "निदा फ़ाज़ली"

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धूप में निकलो घटाओं मेंनहाकर देखोज़िन्दगी क्या है, किताबों कोहटाकर देखो।सिर्फ आँखों से ही दुनियानहीं देखी जाती दिल की धड़कन को भी बीनाईबनाकर देखो।पत्थरों में भी ज़बां होती हैदिल होते हैंअपने घर के दरो-दीवार सजाकर देखो।वो सितारा है चमकने दोयूं ही आँखों मेंक्य...

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नील गगन पर बैठ कब तक चाँद सितारों से झाँकोगे पर्वत की ऊँची चोटी से कब तक दुनिया को देखोगे आदर्शों के बन्द ग्रन्थों में कब तक आराम करोगे मेरा छप्पर टपक रहा है बनकर सूरज इसे सुखाओ खाली है आटे का कनस्तर बनकर गेहूँ इसमें आओ माँ का चश्मा टूट गया है बनकर शीशा इसे...

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अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जायेघर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाये जिन चिराग़ों को हवाओं का कोई ख़ौफ़ नहींउन चिराग़ों को हवाओं से बचाया जाये बाग में जाने के आदाब हुआ करते हैं किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाये ख़ुदकुशी करने की हिम्मत नहीं...

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दिन सलीक़े से उगा रात ठिकाने से रही दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही चंद लम्हों को ही बनती हैं मुसव्विर आँखें ज़िन्दगी रोज़ तो तस्वीर बनाने से रही इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी रात जंगल में कोई शम्मा जलाने से रही फ़ासला चाँद...

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नील गगन पर बैठ कब तक चाँद सितारों से झाँकोगे पर्वत की ऊँची चोटी से कब तक दुनिया को देखोगे आदर्शों के बन्द ग्रन्थों में कब तक आराम करोगे मेरा छप्पर टपक रहा है बनकर सूरज इसे सुखाओ खाली है आटे का कनस्तर बनकर गेहूँ इसमें आओ माँ का चश्मा टूट गया है बनकर शीशा इसे ब...

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बहुत मैला है ये सूरजकिसी दरिया के पानी मेंउसे धोकर फिर सुखाएँ फिरगगन में चांद भी कुछ धुंधला-धुंधला हैमिटा के उसके सारे दाग़-धब्बेजगमगाएं फिरहवाएं सो रही हैपर्वतों पर पांव फैलाएजगा के उनको नीचे लाएँपेड़ों में बसाएँ फिरधमाके कच्ची नींदों मेंडरा देते हैं बच्चों क...

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माँ बेसन की सौधी रोटी परखट्टी चटनी - जैसी माँयाद आती है चौका - बासनचिमटा , फुकनी - जैसी माँ ||बान की खुर्री खाट के ऊपरहर आहट पर कान धरेआधी सोयी आधी जागीथकी दोपहरी - जैसी माँ ||चिडियों की चहकार में गूँजेराधा - मोहन , अली - अलीमुर्गे की आवाज़ से खुलतीघर क...

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1...जीवन क्या है चलता फिरता एक खिलौना है दो आँखों में एक से हँसना एक से रोना है जो जी चाहे वो मिल जाये कब ऐसा होता है हर जीवन जीवन जीने का समझौता है अब तक जो होता आया है वो ही होना है रात अँधेरी भोर सुहानी यही ज़माना है हर चादर में दुख का ताना सुख का बाना है आती सा...

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नील गगन पर बैठ कब तक चाँद सितारों से झाँकोगे पर्वत की ऊँची चोटी से कब तक दुनिया को देखोगे आदर्शों के बन्द ग्रन्थों में कब तक आराम करोगे मेरा छप्पर टपक रहा है बनकर सूरज इसे सुखाओ खाली है आटे का कनस्तर बनकर गेहूँ इसमें आओ माँ का चश्मा टूट गया है बनकर शीशा इसे बन...