कभी लगता है, एक दिन ऐसा भी होगा जब यहाँ लिखा हुआ एक-एक शब्द कभी किसी के समझ में नहीं आएगा। जैसे मुझे अभी से नहीं आ रहा। यहाँ की लगती गयी तस्वीरें इन सालों में जितनी ठोस, मूर्त, स्पष्ट हुई हैं, उसी अनुपात में सत्य उतना ही धुँधला, अधूरा, खुरदरा होकर मेरे भीतर घूम रहा...
पोस्ट लेवल : "पॉपुलर कल्चर"

0
पता नहीं यह दिन कैसे हैं? कुछ भी समझ नहीं आता। मौसम की तरह यह भी अनिश्चित हो गये हैं जैसे। जैसे अभी किसी काम को करने बैठता हूँ के मन उचट जाता है। खिड़की पर पर्दे चढ़ाकर जो अंधेरा इन कम तपती दुपहरों में कमरे में भर जाता है, लगता है, वहीं किसी कोने से दाख़िल होकर मेरे म...

0
विज्ञापन मूलतः एक विचार है, जिसे कंपनी अपनी ‘ऍड एजेंसी’ द्वारा हर संभावित उपभोक्ता की तरफ़ संप्रेषित करती है। ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’ कहने वाली मोबाइल कंपनी, कैसे इस विज्ञापन क्षितिज से गायब हो गयी, उसे जानना बहुत रोचक होगा। उनके पीछे हटने के कारण क्या हैं? क्या व...