मेरी बस थोड़ी-सी आँखें जल रही हैं और थोड़ी-सी नींद गायब है। बाकी सब ठीक है, जैसे देश में सब ठीक है। इस व्यंजना को समझने के लिए जादा दिमाग लगाने और घोड़े दौड़ाने की ज़रूरत नहीं है। यह कोई फ़िलर पोस्ट नहीं है जो इतने दिन के बाद आज रात उस खाली स्थान को भरने की गरज से लिखी ज...
पोस्ट लेवल : "भाषा के सवाल"

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असहमतिअपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में हमारे मास्टर रहे हैं। हम आज भी उनसे काफ़ी कुछ सीखते हैं। हमने उनसे बात को तार्किक आधार से कहने का सहूर सीखा और लिखकर उसे कहने का कौशल भी। लेकिन वह एनडीटीवी के 'मुक़ाबला' में कैसी बात कह रहे हैं। समझ नहीं आता। वह जब अल्पसंख्यक...

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मुझे नहीं पता इन आगे लिखी जाने वाली पंक्तियों को किस तरह लिखा जाना चाहिए। बस दिमाग कुछ इस तरह चल रहा है, जहाँ यह समझना बड़ा मुश्किल है, क्या चल रहा है? दो साल पहले की कोई बात है, जिसके आसपास यह सब घटित हो रहा है। यह ख़ुद को दोहराने जैसा है। किसी तरह अपने अतीत को फ़िर...

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सबसे मूलभूत सवाल है, हम लिखते क्यों हैं? यह लिखना इतना ज़रूरी क्यों बन जाता है? मोहन राकेश अंदर से इतने खाली-खाली क्यों महसूस करते हैं? उनके डायरी लिखने में अजीब-सी कशिश है। बेकरारी है। जिन सपनों को वह साथ-साथ देखते चलते हैं, उनके अधूरे रह जाने की टीस है। वह अंदर-ही...

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इसे किस तरह लेना चाहिए, पता नहीं। सब यही कहेंगे, इस पर कुछ नहीं कहना चाहिए। पर कहीं अंदर से लगता है, बात होनी चाहिए। गंभीरता से होनी चाहिए। हम नहीं करना चाहेंगे, फ़िर भी। थोड़ी झिझक के साथ। थोड़े छिपकर। कुछ नाम के साथ करेंगे। कुछ नाम नहीं लेंगे, सिर्फ़ संकेत या सूत्र व...

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ऐसा नहीं है के इन बिन लिखे दिनों में मन नहीं किया। साल ख़त्म होते-होते कई सारी बातें हैं जिन्हे कहने का मन है। मन है उन अधूरी पोस्टों पर काम करने का। पीछे किए वादों पर लौट जाने का। कतरनों को जोड़ पूरे दिन बनाने का। इत्मीनान से रुककर सबकुछ कह लेना चाहता हूँ। जो पास है...