कथादेश पत्रिका के 2020 के फरवरी अंक में दिलीप गुप्ता ने अपने द्वारा निर्देशित रतन वर्मा की कहानी पर आधारित प्रस्तुति 'नेटुआ' की रचना प्रक्रिया पर लिखा है. इस लेख को उनकी इजाजत से रंगविमर्श के पाठकों के लिए उपलब्ध कराया जा रहा है. इस कहानी को प्रसिद्ध अभिन...
पोस्ट लेवल : "रचना प्रक्रिया"

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मानवेंद्र त्रिपाठी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक हैं और इन दिनों मुंबई में रहकर सिनेमा, टेलीविजन और रंगकर्म में सक्रिय हैं. प्रवीण कुमार गुंजन निर्देशित 'समझौता' में अपने अभिनय से मानवेन्द्र ने रंग जगत में अपनी धाक जमाई थी. वरिष्ठ साहित्यकार हृषिकेश...

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आज हिंदी में इस बात को लेकर बहुधा सवाल खड़े होते हैं कि कोई कालजयी कृति क्यों सामने नहीं रही । कालजयी ना भी तो अपने समय को झकझोर देनेवाली कहानी या उपन्यास क्यों नहीं लिखे जा रहे हैं । क्या वजह है कि असगर वजाहत की ‘कैसी आई लगाई’ चित्रा मुद्गल की ‘आवां’, भगवानदास मोर...

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वह एक खाली-सी ढलती दोपहर थी। दिमाग बेचैन होने से बिलकुल बचा हुआ।किताबें लगीं जैसे बिखरी हुई हों जैसे. कोई उन्हें छूने वाला नहीं था. कभी ऐसा भी होता, हम अकेले रह जाते हैं।किताबों के साथ कैसा अकेलापन. उनकी सीलन भरी गंध मेरी नाकों के दोनों छेदों से गुज़रती हुई पता नहीं...

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यह मेरे ऊपर किसी बोझ की तरह है। रूई के बोझ की तरह। मेरी रूई बार-बार भीग जाती है। बार-बार वापस आकर अपने लिखने को देखने की प्रक्रिया में लगातार उसे घूरते रहना कितना पीड़ादायक अनुभव रहा होगा। यह अपने आप में कोई मौलिक सवाल नहीं है। कई सारे लोग कभी इस पर बात करने की फ...

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बड़े दिनों बाद आज अपने बारे में सोचता रहा। सोचता तो हमेशा रहता हूँ। पर आज लिखने के लिए थोड़ा अलग तरह से अंदर की तरफ़ लौटने लगा। जून की तपती दुपहरे कहीं जाने नहीं देतीं। फ़िर भी दोबार निकल गया। हम लोग घंटों वहीं आर्ट्स फैकल्टी की अँग्रेजी मेहराबों के बीच में पुराने दिनो...

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कई दिनों से सोच रहा हूँ मेरे लिखने में ऐसा क्या है जो चाहकर भी गायब होता रहा है। इस खाली कमरे का एकांत पता नहीं किस तरह अपने अंदर भरकर यहाँ बैठा रहा हूँ। दीवारें बदल जाती हैं पर मन वहीं कहीं अकेले में रह रहकर अंदर लौटता रहता है। यह बहुत अजीब है कि जब कहीं चेहरे और...

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मुझे कहीं-न-कहीं ऐसा ही लगा था, जैसा आपने बताया। आप बाद में यहाँ से बंबई गए होंगे। मैं तसवीरों में अपनी ज़िंदगी में छूट गए रंगों को ढूंढता रहा हूँ। मेरे यहाँ भी रंग हैं पर सब मिलकर काले में तब्दील हो गए हैं। मुझे लगता रहा है अभी मेरी ज़िंदगी मेरे मन की नहीं है, इसलिए...

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तबीयत कल के मुक़ाबले काफ़ी दुरुस्त है। बस अब मन ठीक करना रह गया है। अभी इतनी उम्र नहीं हुई पर बचपन की यादें अब गड्ड-मड्ड होने लगी हैं। मुझे बचपन की कहानियाँ पढ़ना पसंद हैं, जैसी उदय प्रकाश ने लिखी हैं। तिरीछ या डिबिया या मौसा जी या ऐसी बहुत। शायद ख़ुद की नहीं लिख पाया...

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मेल से आई चिट्ठी जादा सबर और वक़्त मांगती है, लोग कहीं अरझे नहीं रहना चाहते होंगे। शायद इसलिए हमारी दुनिया इससे इससे बचती रही होगी। पर मुझे आश्चर्य है कि आप कैसे वहाँ तक पहुँच गईं कि मैं इतना लिखते हुए भी चुप्पा किस्म का हूँ? बहुत मानीखेज लगा मुझे। पता नहीं यह क्या...