अंतर्जाल पर जब हिंदी में लिखना और पढ़ना संभव हुआ तो सबसे पहले लिखने की सुविधा हमें ब्लॉग के ज़रिए मिली। ब्लॉग के प्लेटफार्म पर ही मेरी और मुझ जैसे कइयों की लेखन यात्रा शुरू हुई। ब्लॉग पर एक दूसरे के लेखन को पढ़ते, सराहते, कमियां निकालते और मठाधीषी करते हम लोग...
पोस्ट लेवल : "रश्मि रविजा"

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पिछले एक साल में बहुत सारी पुस्तकें इकट्ठा हो गयीं, पढ़ने के लिये, और फिर लिखने के लिये. न बहुत पढ़ पाई, सो लिख भी नहीं पाई. अब एक-एक करके पढ़-लिख रही हूं. रश्मि का कहानी-संग्रह, ’बन्द दरवाज़ों का शहर’ प्रकाशित होते ही ऑर्डर कर दिया था. कुछ कहानियां पढ़ भी ली थीं, लेकिन...

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“आंचलिक बोली के चुटीलेपन के साथ रोजमर्रा की छोटी-छोटी घटनाओं के ताने-बाने से बुनी इस कथा में हर लड़की कहीं-न-कहीं अपना चेहरा देख पाती है. यही इस उपन्यास की सार्थकता है.” सुधा अरोड़ा द्वारा रश्मि रविजा के पहले उपन्यास ‘काँच के शामियाने’ भूमिका की मानिंद लिखी ये पंक्ति...

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यहाँ आपको मिलेंगी सिर्फ़ अपनों की तस्वीरें जिन्हें आप सँजोना चाहते हैं यादों में.... ऐसी पारिवारिक तस्वीरें जो आपको अपनों के और करीब लाएगी हमेशा...आप भी भेज सकते हैं आपके अपने बेटे/ बेटी /नाती/पोते के साथ आपकी तस्वीर मेरे मेल आई डी- archanachaoji@gmail.com पर साथ...

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यहाँ आपको मिलेंगी सिर्फ़ अपनों की तस्वीरें जिन्हें आप सँजोना चाहते हैं यादों में.... ऐसी पारिवारिक तस्वीरें जो आपको अपनों के और करीब लाएगी हमेशा...आप भी भेज सकते हैं आपके अपने बेटे/ बेटी /नाती/पोते के साथ आपकी तस्वीर साथ ही आपके ब्लॉग की लिंक ......बस शर्त ये है...

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रश्मि रविजा का ब्लॉग हैं अपनी उनकी सबकी बात . बैक 2 बैक दो पोस्ट हैं इतना मुश्किल क्यूँ होता है "ना " कहना लड़कियों की उड़ान किसी इत्तफाक़ का मोहताज़ नहीं....पहली पोस्ट में रश्मि ने "माताओं-पिताओं द्वारा अपने ही बच्चों के पालन-पोषण में विभ...

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23 दिसम्बर 2011-हम तीनों, मैं उमेश जी और विधु इन्दौर जाने के लिये तैयार.... लेकिन ट्रेन होते-होते छह घंटे लेट हो गयी नेट पर रेलवे का रनिंग इन्फ़ॉर्मेशन चार्ट खुला था, लगातार. सोचा चलो मेल ही चैक की जाए. संयोग से रश्मि ( रविजा) ऑन लाइन मिल गयी. बातचीत हो गयी. थ...