इधर सोचने बहुत लगा हूँ। पुराने दिनों पर घंटों सोचते हुए हफ़्तों बिता सकता हूँ। इतने दिन बिता देने की यह काबिलियत मुझमें अचानक घर नहीं कर गयी। यह मेरे ख़ून में है। क्योंकि मेरे ख़ून में इस मिट्टी की हवा नहीं है। पानी भी नहीं है। कुछ भी नहीं है। जिस-जिस के ख़ून में यहाँ...
पोस्ट लेवल : "स्मृतियाँ-छवियाँ"

0
अकेले खाली कमरे में बैठे रहने का सुख क्या होता है, इसे भरे हुए लोग कभी नहीं जान पाएंगे। उनकी उन दिवारों पर घूमती छिपकलियों से कभी बात नहीं होगी। वे कभी अकेले नहीं होना चाहेंगे। वे कभी छत से झड़ते पलस्तर को ‘स्लो मोशन’ में देख लेने वाली आँखों वाले नहीं हो सकते।...

0
न लिखना पाना किसी याद में रुक जाना है। इसे टाल देना, उसमें ही कहीं छिप जाना है। लगता है, इधर ऐसे ही छिप गया हूँ। यहाँ न आने के पीछे कई गैर-ज़रूरी बातें रही होंगी। पर उनका होना कतई इसलिए गैर-ज़रूरी नहीं रहा होगा। उनकी कलई खुलते-खुलते देर लगती है, पर पता लग जाता है। इस...

0
उस इमारत का रंग लाल है। अंग्रेजों के जमाने की। अभी भी है। ख़स्ताहाल नहीं हुई है। उसकी देखरेख करने वाले हैं। किसी लॉर्ड ने इसका शिलान्यास किया होगा। आज़ादी से पहले। कई बार उसे पत्थर को पढ़ा है, पर अभी याद नहीं है। यहाँ ख़ूब बड़े-बड़े कमरे हैं। जीने भी शानदार सीढ़ियों के सा...

0
बात तब की है जब फोटो खींचने वाले कैमरों से दोरंगी तस्वीरें ही निकला करती थी। हम तब पैदा भी नहीं हुए होंगे। पर अपने छुटपन से हम लकड़ी वाली अलमारी खोलते और बड़े आहिस्ते से एक एककर सारे एलबम निकाल लेते। धीरे-धीरे उन पुरानी यादों से अपनी पहचान बनाते। तब से लेकर आज तक...

0
दिल्ली, मेरा शहर। बीते शनिवार से इस भाववाचक संज्ञा को कितनी ही बार अंदर-ही-अंदर दोहरा रहा हूँ, पता नहीं। कितनी ही यादें बेतरतीब हुई जा रही हैं। आगे पीछे। ऊपर नीचे। इसमें ऐसा कुछ है जो बैठने नहीं दे रहा। हर वक़्त लग रहा है कुछ छूट रहा है। कुछ पीछे रह गया है। शायद डीट...

0
पता नहीं क्यों हुआ। होना नहीं चाहिए था। फिर भी। चन्दन पाण्डेय की कहानी ‘शुभकामना का शव’ पढ़कर दादी याद आ गयी। कहानी में कामना की कोई दादी क्यों नहीं है? शायद इसलिए। फ़िर तो बड़ी देर तक नीचे गलियारे में घूमते हुए उनकी बहुत याद आई। अगर उस लड़की की दादी होती तब भी क्या उस...

0
दिन पता नहीं कैसे बीतते जा रहे हैं। करने को कुछ है ही नहीं जैसे। खाली से। ठंडे से। दिन अब छोटे होने लगे हैं। तीन बजने के साथ जैसे गायब से। उबासी नींद के साथ बुलाती है। पर नाम नहीं करता। रज़ाई ठंड से भी ठंडी कमरे में पड़ी रहती है। पैर भी ठंडे रहने लगे हैं। फ़िर नीचे सा...

0
बहराइच कभी-कभी जनसत्ता में नज़र आ जाता है। अधिकतर वहाँ संजीव श्रीवास्तव होते हैं। और ख़बरों में सागौन की लकड़ी की तस्करी से लेकर दुधवा नेशनल पार्क। कभी घाघरा नदी की बाढ़ भी बनी रहती है। कमाल खान भी इकौना जाकर रिपोर्टिंग कर आए हैं। उन्होने ही बताया था कि यहाँ से दो बार...

0
पता नहीं आलोक मेरे अंदर किस अकेलेपन की बात कर रहा है। उसने इसे कैसे मेरे अंदर देखा होगा। क्या ख़ाका उसके दिमाग में घूम रहा है। किन बिन्दुओं पर ठहर गया होगा। फ़ोन पर पूछा भी तो कहा यहाँ नहीं। कभी लिखुंगा। पीछे कहीं पढ़ रहा था शहर और ऊब पर। ऊबते शहर में ऊबते हम। यह पता...